Sunday 16 December 2012

"संतोष"


इंसान है आज बहका-बहका 
"संतोष-धन" है वो खो बैठा!!
विलास के साधनों से 
हैं आँखें, उसकी यूँ चुन्धियाई 
बिना सोचे ही, इस तृष्णा का 
बन गया है, वो अनुयायी !!
मद की मदहोशियों से 
वो यूँ आकर्षित हुआ 
की उसने, अपने चातुर्य
को भी है खो दिया !!
अभिमान का अँधेरा है 
उसपे ऐसा छाया 
कि स्वाभिमान की वाणी 
भी, वो सुन न पाया !!
कृत्रिमता के पटल ने है 
उसकी आँखों को यूँ छुपाया 
की सत्य- असत्य में 
वो भेद ना कर पाया !!
लोभ लालच ने इतना 
उसे है निर्मम बनाया 
कि औरों की  भावनाओ को 
वो समझ नहीं पाया !!
झूठ की धुंध ने 
है उसे चारों ओर से घेरा 
की दिखला न सका 
सत्य-पथ उसे कोई सवेरा !!
ईर्ष्या की रज में आता है 
नज़र वो सना हुआ 
आज प्रीत की धुन को भी 
है उसने भुला दिया !!
काश वो देख पाता 
आया है नज़र,उसे जो रेशम 
वो तो है,काल के मायाजाल  का रेशा !!
काश वो जान जाता   
जिन मानवीय-भावनाओ(सत्य,संतोष ,सय्यम) को,
समझने लगा है, वो अवरोधक 
वही हैं जीवन-सार, और यथार्थ 
वो ही है "पथ-प्रदर्शक" 
वो ही है-"लक्ष्य" मानवता का!!