कृत्रिमता के बदल छाये चारों ओर
समाज कहता मनो निशा को भोर
जीवन जीना है तो, झुकना सीखो !
सफ़र करना है तो रुकना सीखो !
परम्पराओं के दायरे से बाहर,ना निकलो !
पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलना सीखलो!
पर क्या .......?
इस विचारधारा के अनुरूप ढल सकोगे ?
चुप रह इन कुरीतियों को यूँ ही सहोगे ?
कायरता को जीवन में, सम्मलित करोगे ?
और यूँ ही जीवन बिता कर चले जाओगे ?
है, परिवर्तन है जीवन में है ज़रूरी
रिश्तों, समाज, रूड़ियों को ना बनाओ मजबूरी
संदेह रहा है सदा से मानव प्रगति की कमजोरी
मिटा डालो ये भ्रम व अपने और अपनी मंजिल के बीच की दूरी
माना देगा ना साथ कोई तुम्हारा,
माना कोई ना होगा, मार्गदर्शक तारा
होगा बस तुमपे सिर्फ "आपसी-विश्वास" का सहारा
लक्ष्य प्राप्ति कराएगा सिर्फ "आत्मविश्वास" तुम्हारा !
तब ये ही असमर्थक गायेंगे
तुम्हारी जय-गाथा
तभी संतुष्ट होगा हृदय
ऊंचा होगा गर्व से ये माथा !!