कहते हैं-"प्रकृति ने की है मनमानी"
गाँव, सड़क,शहरों में भर आया है बाड़ का पानी,
नदियों को सीमित करनेवाले तटबंद टूटे
बैराजों के दरवाज़े चरमरा उठे
टेहरी जैसे बाँध भी जल को रोक न सके !
जीवन दुशवार हो रहा,
प्रकृति को सुनाई नहीं देती,मासूमों की दुहाई??
नदियों के इस बर्ताव से,मानवता घायल होती है,
सच कहें तो,
बरसात में नदियाँ पागल हो जाती हैं!!"
ऐसा सुनकर गंगा माँ मुस्कुराई
और बयान देने जनता की अदालत में चली आयीं
जब कठघरे में आकर माँ गंगा ने अपनी ज़बान खोली
तो वो करुणापूर्ण आक्रोश में कुछ यूँ बोलीं :-
"मुझे भी अपना साम्राज्य छिनने का डर सालता है
और मानव, मानव तो मेरी निर्मल धारा केवल कूड़ा डालता है
धार्मिक आस्थाओं का कचरा,मुझे झेलना पड़ता है
जिंदा से लेकर,मुर्दों तक के अवशेषों को,अपने संग ठेलना पड़ता हैं,
अरे! जब मनुष्य मेरी अमृतधारा में पोलिथीन बहता है
जब,मृत पशुओं की दुर्गन्ध से मेरा जीना दुर्भर हो जाता है,
जब,मेरी धरा में आकर मिलता है शहरों के गंदे नालों का पानी
तब किसी को देखाई नहीं देती मनुष्य की मनमानी??"
"ये जो मेरे भीतर का जल है::इसकी प्रकृति ही अविरल है
कोई भी अड़चन मुझसे सहन नहीं होती
फिर भी युगों से मेरी धाराएं; तुम्हारे अत्याचारों का भार है ढोती!!
ऐसे ही थोड़ी आ जाती है बाढ!!
तुम निरंतर डाले जा रहे हो,मुझमें औद्योगिक विकास का कबाड़!!
मानवीय मनमानी जब हदें लांघ जाती हैं
तभी प्रकृति अपनी सीमाएं-खूँटी पर टांग देती है।
नदियों का जल जीवनदायी है
परन्तु मानव प्रवृति ही आततायी है!
इसने निरंतर प्राकृतिक शोषण किया
और अपने ओछे स्वार्थों का पोषण किया ।
नदियों की धारा को बांधता गया और मीलों फैले,
मेरे विस्तार को कंकरीट के दम पर काटता गया।
सच तो ये है,मनुष्य नदियों की ओर बढ़ता आया है
नदियों की धरा को संकुचित कर इसी ने, शहर बसाया है।
ध्यान से देखेंगे तो, आप समझ पाएंगे
नदी शहर में घुसी है या शहर नदी में घुस आया है !!
जिसे बाड़ का नाम दे-दे; मनुष्य हैरान परेशान है
ये तो नदियों का नेचुरल सफाई अभियान है
"प्रकृति नहीं मनुष्य ही कर रहा है मनमानी !!"
ये तो, उसीके दुष्कृत्यों का परिणाम है!!
ये तो, उसीके दुष्कृत्यों का परिणाम है!!