भगवन पुरातन पुरुष हो तुम, विश्व के आधार हो,
हो आदिदेव, तथैव उत्तम धाम, अपरम्पार हो।।
ज्ञाता तुम्ही हो, जानने के योग्य भी, भगवंत हो,
संसार में, व्यापे हुए हो, देव देव अनंत हो।।
तुम वायु यम पावक वरुण एवं तुम्ही राकेश हो,
ब्रह्मा तथा उनके पिता भी, आप ही अखिलेश हो।।
हे देव देव, प्रणाम देव, प्रणाम सहस्त्रों बार हो
फिर फिर प्रणाम, प्रणाम नाथ, प्रणाम बारम्बार हो।।
सानंद सन्मुख और पीछे से प्रणाम सुरेश हो,
हरि बार बार प्रणाम, चारों ओर से, सर्वेश हो।।
है वीर्य शौर्य अनंत बलधारी, अतुल बलवंत हो,
व्यापे हुए सब में, इसीसे सर्व हे, भगवंत हो।।
अच्युत हंसाने के लिए, आहार और विहार में,
सोते अकेले, बैठते सब में किसी व्यवहार में।।
सबकी क्षमा हम मांगते, जो कुछ हुआ, अपराध हो,
संसार में तुम, अतुल अपरम्पार, और अगाध हो।।
सारे चराचर के, पिता हैं आप, जग आधार हैं,
हैं आप, गुरुओं के गुरु, अति पूज्य और महान हैं।।
त्रैलोक्य में, तुमसा प्रभु, कोई, कहीं भी, हैं नहीं,
अनुपम अतुल्य प्रभाव बढ़कर, कौन फिर होगा कहीं।।
इस हेतु वंदन, योग, ईश शरीर चरणों में किया,
हम आपको,करते प्रणाम प्रसन्न करने के लिए।।
ज्यों तात सुत के, प्रिय प्रिया के, मित्र सहचर अर्थ हैं,
अपराध मेरा, आप त्योंही, सहने हेतु समर्थ हैं..
अपराध मेरा आप त्योंही सहने हेतु समर्थ हैं।।
हो आदिदेव, तथैव उत्तम धाम, अपरम्पार हो।।
ज्ञाता तुम्ही हो, जानने के योग्य भी, भगवंत हो,
संसार में, व्यापे हुए हो, देव देव अनंत हो।।
तुम वायु यम पावक वरुण एवं तुम्ही राकेश हो,
ब्रह्मा तथा उनके पिता भी, आप ही अखिलेश हो।।
हे देव देव, प्रणाम देव, प्रणाम सहस्त्रों बार हो
फिर फिर प्रणाम, प्रणाम नाथ, प्रणाम बारम्बार हो।।
सानंद सन्मुख और पीछे से प्रणाम सुरेश हो,
हरि बार बार प्रणाम, चारों ओर से, सर्वेश हो।।
है वीर्य शौर्य अनंत बलधारी, अतुल बलवंत हो,
व्यापे हुए सब में, इसीसे सर्व हे, भगवंत हो।।
अच्युत हंसाने के लिए, आहार और विहार में,
सोते अकेले, बैठते सब में किसी व्यवहार में।।
सबकी क्षमा हम मांगते, जो कुछ हुआ, अपराध हो,
संसार में तुम, अतुल अपरम्पार, और अगाध हो।।
सारे चराचर के, पिता हैं आप, जग आधार हैं,
हैं आप, गुरुओं के गुरु, अति पूज्य और महान हैं।।
त्रैलोक्य में, तुमसा प्रभु, कोई, कहीं भी, हैं नहीं,
अनुपम अतुल्य प्रभाव बढ़कर, कौन फिर होगा कहीं।।
इस हेतु वंदन, योग, ईश शरीर चरणों में किया,
हम आपको,करते प्रणाम प्रसन्न करने के लिए।।
ज्यों तात सुत के, प्रिय प्रिया के, मित्र सहचर अर्थ हैं,
अपराध मेरा, आप त्योंही, सहने हेतु समर्थ हैं..
अपराध मेरा आप त्योंही सहने हेतु समर्थ हैं।।