कृत्रिमता के बदल छाये चारों ओर
समाज कहता मनो निशा को भोर
जीवन जीना है तो, झुकना सीखो !
सफ़र करना है तो रुकना सीखो !
परम्पराओं के दायरे से बाहर,ना निकलो !
पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलना सीखलो!
पर क्या .......?
इस विचारधारा के अनुरूप ढल सकोगे ?
चुप रह इन कुरीतियों को यूँ ही सहोगे ?
कायरता को जीवन में, सम्मलित करोगे ?
और यूँ ही जीवन बिता कर चले जाओगे ?
है, परिवर्तन है जीवन में है ज़रूरी
रिश्तों, समाज, रूड़ियों को ना बनाओ मजबूरी
संदेह रहा है सदा से मानव प्रगति की कमजोरी
मिटा डालो ये भ्रम व अपने और अपनी मंजिल के बीच की दूरी
माना देगा ना साथ कोई तुम्हारा,
माना कोई ना होगा, मार्गदर्शक तारा
होगा बस तुमपे सिर्फ "आपसी-विश्वास" का सहारा
लक्ष्य प्राप्ति कराएगा सिर्फ "आत्मविश्वास" तुम्हारा !
तब ये ही असमर्थक गायेंगे
तुम्हारी जय-गाथा
तभी संतुष्ट होगा हृदय
ऊंचा होगा गर्व से ये माथा !!
राजस्थान की रूढिवादी परम्पराओं के परिपेक्ष्य में है यह रचना? वहाँ ही पली-बढी हैं आप? हाँ,ये बात दीगर हैं कि कुछ जडता है हमारी ढेर सारी मान्यताओं में. रुढिवादिता अन्य प्रांतो में भी है.लेकिन शिक्षा के प्रसार और संवाद तकनीक के प्रसार ने क्षेत्रिय सीमाओं को विलीन करना शुरू कर दिया है और सूचना के स्वछंद अदान-प्रदान से गलत परम्पराएं ढहने लगी हैं.
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने.
Thanks a lot sir..somehow it may be connected to Roodiwadita in Rajasthan.. but if we related it to deliberate ignorance all over India will express my feelings in better way.I'm fortunate enough to have a liberal n revolutionary atmosphere in my family.. I have been using logical analysis for situation but really feel bad when I see people still embedded in Dowry system.. embedded in caste prejudice.. n much more..
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